गुम्सुम था लम्हां हवाओं का रुख़ था थमा करीब थे वो आज जिसके एहसास से वक़्त था जमा, नाराज़गियाँ थी होठों पर दिल में ढेर कड़वाहट वो तीखी नज़रे मिला रहे थे हमसे जिससे हो रही थी घबराहट, कैसे निकालूं उस भंवर से खुद को मैं धस रहा हूँ कुछ कह नही पा रहा पर सब सुन रहा हूँ , क्योकि छोड़ आया हूँ वो दौर जहाँ अपनी मौजूदगी साबित करने के लिए कठघरे में खड़ा होना पड़ता था ज़िंदगी जिसके नाम की थी उसको सबूत देना पड़ता था , फिर वक़्त का हाथ थामा जाओ तुम्हे आज़ाद किया खामोशी से कह हम निकल आए ये भी तो उस प्रेम का सबूत ही तो है जो वो आज यहाँ हमारे बगल में बैठ पाए, ज़ुबा की इज़्ज़त उन मीठी यादों के क़र्ज़ में मैं बनाए रखना चाहता था ये आज भी वही जंग है जिसमें मैं जीतना नही चाहता था ............. फिर भी तुम्हारा ....................