सोचते हैं की हम इतना क्यूँ सोचते हैं
सोचते हैं की हम इतना क्यूँ सोचते हैं हाथों में गड़ी लकीरों को क्यूँ ख़रोचते हैं, जो रिश्ते विरासत में मिलें हैं खुद उन्हे निभा नही पाते फिर क्यूँ उम्मीद ज़माने से वफ़ा की चाहते, कुसूर गर हमारा नहीं तो समझो उनका भी नहीं, कभी हम तो कभी वो सही.........