बस दो पल ही तो माँग रही थी दुख कम करने का सहारा तुझसे बाँध रही थी पर तूने भी नज़र अंदाज़ करके हमे क्या खूब सिखाया है सच कहें तो अपंग बनने से बचाया है , शुक्र गुज़ार हूँ तेरी तेरे कारण मेरी शक्ति हुई मेरी ये तो मेरी परीक्षा थी तेरे सहारे रहती तो भिक्षा थी......
कहाँ चले गए वो दिन जब हम जी नही पाते थे एक दूसरे के बिन संग तुम्हारे वक़्त बिताने को मैं सबसे लड़ लेती थी, काम कोई कुछ भी देदे तुझसे मिलने की तलप में सब कर लेती थी, आज मिलना क्या छूटा काम ख़त्म ही नही हो पाते मेरे जब दिन भी छोटे लगते थे और अब लगता है सूरज भी उगता है देर से सवेरे भूक भड़ गई है मेरी पियास अब बुझती नही, तुझसे मिलने के वक़्त को ही याद कर ज़िंदा हूँ वरना ज़िंदगी मुझमे अब बस्ती नही...........
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