anubhav


मैं आंखों में
 दर्द भर कर बैठी थी 
अपनों के इंतजार में
 वक़्त कहाँ 
पहले अपने ढूंढ ले 
फिर बैठियों इस बाजार में

ज़िन्दगी में नहीं होता कर्ज 
यदि समय पर निभा लिया होता फ़र्ज़ 
वो तो सबको देही रहा था निरंतर 
बस महेत्वकांक्षाओं में उलझ कर
 आदमी ऐसा बना खुदगर्ज
कि अब तो दवा भी नाराज़ हो 
कहीं घुल गई 
रास्ता हमारा भूल गई 
और आदमी बन गया रोग
अब धीरे धीरे समझ में आने लगा है
 कि पर्दा जरूरी क्यों होता है
 फिर चाहे वो घर का हो या 
श्म का
 आखो का है या धर्म का 
क्योंकि जब उठता है सबका भी टूटता है

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