ANUBHAV
कुछ इस तरह ज़िन्दगी को देखने की आदत पड़ गई है
शायद इसलिए परेशानियां बढ़ गई है
जरूरत का सब है
फिर भी जरूरतों के लिए लड़ गई है
क्यों है ये अफसोस
जब ठोकर खा कर भी
नहीं आया होश
मैं खुद की बनाई उलझनों की भीड़ में
कहीं खो गई हूं
लगता है गलती से खुली आंखों संग
सो गई हूं
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