कभी उलझी भी है कभी सुलझी भी है
कभी उलझी भी है
कभी सुलझी भी है
कभी मेरे हाथ में तुलसी भी है
पर गुज़रते हालत में कई बार मैं खुद को संभाल नही पाता हूँ
मेरे प्रभु मैं तुझमे मन बसाना चाहता हूँ
रास्तों पर अक्सर मैं फिसल जाता हूँ
मैं तुलसी की कीमत क्यों नही समझ पाता हूँ
मैं तेरे सिवा अब और कुछ नही समझना चाहता हूँ
मेरे मौला मेरे सद गुरु
मुझे बना इस काबिल कि मैं तुझे अपने मन का मलिक बना, तेरे मन में जगह बनाना चाहता हूँ........
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