आँखें हर पल भीगी थी
आँखें हर पल भीगी थी
कैसी वक़्त की उलझन है
लाल रंग से बनी दुल्हन है ,
ठिकाना मिल रहा है
पर जीने का बहाना नही ,
शहनाईयाँ बज रहीं है
पर होंठों पर तराना नही,
वो सोचती है
खिलोने ही तो माँगे थे
चौके पर बिठा दिया
गुड्डा माँगा था
दूल्हा दिखा दिया ...............
पियासी ही तड़पती रही
की कहीं पानी माँगा तो......समुंदर ना दिखा दें
इस छोटी सी उम्र में ..........अब मुझे माँ ना बनवा दें ,
ये सब अब और क्या समझ पाती
मैं तो अभी तक ठीक से चलना भी नही सीखी थी
रोते रहने का अर्थ भी नही समझ पाई
क्योंकि आँखें ही मेरी हर पल भीगी थी ......
आँसू थे जिनके करंण
वो मेरे सगे थे
जिन्होने पौंछ ने थे वो अब तक नही जगे थे ,
मुझे ज़िंदगी को जागीर समझ पहुँचा दिया गया था वहाँ
जहाँ मेरी मर्ज़ी बिना बसाया गया मेरा डेरा था
उस चुनरी को ऑड कर
जिसके भीतर सिर्फ़ और सिर्फ़ अंधेरा था ..................
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