रूह की उदासी मन की पीड़ा

रूह की उदासी
मन की पीड़ा
कह रही है
हे जगत के स्वामी
फिर अवतार लो
और उठाओ समाज सुधार का बीड़ा,
हाथों से कंगन छीने जा रहे हैं
आँखों का काजल माथे पर घसीटा जा रहा है,
औरत को सारे आम बेआबरू कर
मन , तन , हर रूप में पीटा जा रहा है,
जिस्म में आवाज़ नही
रूह रही है चीख
कोई सुनवाई नही औरत की
हर पल मांगती है वो भीक
उजाले में भरे हैं अंधेरे
अंधेरोन में शैतानी रातों के घेरे
हर करवट ज़्ख़मों को उभारे
हे जगत के स्वामी
कब आओगे तुम
औरत की तड़पती की रूह तुम्हें पुकारे

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