उलझनों में उलझी ज़िंदगी

उलझनों में उलझी ज़िंदगी
किस तरह लगती है
में ढूंडू उत्तर में
वो पच्छिम में मिलती है
आँख मिचोली खेलती है मेरे संग
जाने केसी है ये जंग
वो मुझसे है परेशन
इस बात से मैं हूँ हैरान ,
खुद से ही खुद की लड़ाई
ये कैसी दुविधा में मैं आई
मन की सुनूँ
या कदमों की
इन चंद पैसों से....................
रोटी खरीदुं
या मल्हम ज़ख़्मो की.........









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