ज़िंदगी के चौराहों पर

ज़िंदगी के चौराहों पर
रोज़ देखती हूँ …..कुछ रिश्तों को मोड़ बदलते हुए
कुछ ऐसे भी जो अंजानों का भी हाथ थiम लेते हैं साथ चलते हुए,
क्यों वक़्त ये आईना दिखता है?
और... मंज़िल पर भी दोनो को पहुँचता है,
सवाल ये है…….. की ……फिर ……. खुश कौन है
मंज़िल
या रिश्तें  ?
मन कहता है
सिर्फ़ वो
जो किसी भी परिस्थिति में नही बिकते........


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