अकेले चलते चलते मंज़िल पर थक गया

अकेले चलते चलते मंज़िल पर थक गया
उँचाईओ को छूने की चाह में मन फँस गया,
मुड़ कर देखा तो मेरा साया भी मुझ पर हँस गया
जिन्हें तू छोड़ आया है मुसाफिर 
देख वहाँ काफिला बस गया,
तेरे पास सुख दुख बाटनें को भी कोई नहीं
अकेले इस बुलन्दिओ को छूने की चाह में
तू किस दल दल में धंस गया,
कई बार पुकारा भी तुझे
पर तू नज़र अंदाज़ कर गया
गौर फरमां खुद पर ए बंदे
सब होते हुए भी अब तू
अपनों के लिए भी तरस गया........

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